पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय खंड 1.djvu/९

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और मज्ञा मे भी क्रिया के अश निहित रहते है अन्यथा चेष्टा का प्रकाश और प्रकाश की चेष्टा सम्भव नहीं । विठक्षण प्रतीत होगा कि अनुकूल और प्रतिकूल भाव-स्फूति के द्योतनाथ आकाश-पर्यायो, शून्यवाची अक्षर 'ख' से अनुकूलार्थी 'सु' या प्रतिकूलार्थी 'दु' के अक्षरयोग पूवक, वेदना के वग भिन कथन होते हैं । इस विलक्षणता पर विस्मय नही होना चाहिये। शब्द विज्ञान की विकास प्रक्रिया के युगीन भतरालो मे अनेक एसे स्थल हैं जहा शब्द मूर्ति की वण सहति मे मानव समाज के विकास की नाना प्रवृत्तियो की उपलब्धियो का भास्कय एक समन्वित शिल्प सिद्धान्त पर तक्षित आधारित है यह भारत की अपनी विशेषता है जहा बहिरग भोग और अन्तरग-योग चिन्तनोके विपुवत् पर सस्कृति की परिनिष्ठायें एकमेव गोमुख से सहस्रधार स्यन्दित है और, जिनके कूलो पर जड एव चैतन्य विज्ञान के सरज विरज पीठ प्रतिष्ठित है उभय सगोत्रीय है, चाहे वह जड-विज्ञान हो अथवा चैतन्य और, वाङ्गमय दशन तो एक सविशेष अनुभूति-विमश ही है जो प्रतिभा की समस्त विधाओं का प्राण है । वाणी उसी विपुवत् से बहिगत होती है सुतराम् इस अवस्था म मध्यपदी होने से मध्यमा-पदवाच्य होती है। वाक्पद और उसके अथ विविक्ताकगत होकर भी वहा सम्पृक्त और मिलित दशा मे रहते है फिर वे निखरते है अर्थात बिखर (विश्व शरीर ) धारण करते हैं। वाक् और अथ की भिनवेद्यता लेकर पदाथ जगत का उन्मीलन होता है... वर्णो का उदय क्रियाय विशेषण युक्त हो पदाथ-तादात्म्य मे कतिपय प्रतीक बना देता है जिन्हे हम शब्द कहते है। वे शब्द, अपनी सत्ता से अनुप्राणित 'निजशक्ति तरगायित' होकर अपनी आमूल चूल अथवत्ता मे जीवन्त है । अस्तु सुख और दुख मे 'व' को समान–प्रतिष्ठा एक शब्द-महिमा है । वेदना का तात्पय मूलत मात्र दुख से ही नहीं सुख से भी है। शतपथ ब्राह्मण (१४-७-२-१५) के इस कथा से कि प्रतिकूलार्थी दुख नरक एव वेदना का पुत्र है सहज इगित यह प्रापणीय है कि स्वर्ग और वेदना से सुख की उत्पत्ति है। सुतराम, वेदना स्वत , अपने निस्स्वभाव वैशिष्टयेन योगवाहिनी है, जिसकी मिति पर सुख और दुख के चित्रा का उदयास्त होता है । सभ्यता के उत्तरोत्तर विकास के साथ साथ मानव समाज दुख-यहुल होता गया और दुख को परि भापायें भा परिवर्तित हुइ और वेदना पौराणिक युग म दुख-पर्याय मात्र रह गई ( अवलारनाय सुश्रुत महाभारत इत्यादि ) । आगम, अनादि प्रसाद वाङ्गमय ॥८॥