पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय खंड 1.djvu/१०६

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मानस . . मानस । तुम मानस सम विमल विशाल। अगिनित वीचि बिलोल मनोहर माल ॥ उठत, चारु मिलि जात करत अति केलि । तव तरग अति मधुर सुधा अवहेलि ।। तव पुलिनोपरि बैठि मनुज मनमान । सुनत अनोखी तव तरग की तान । चिन्ता, हप, विपाद, क्रोध, निर्वेद । लोभ, मोह, आनन्द, आदि बहु भेद ॥ है यह मकर-निकर अरु मत्स्य महान । आशा सान ॥ चुंगत मौज भरि तेहिं करपना-मराल । विहरत बहु विधि "शोच" भरालिनि जाल ।। ग्रसत कबहुँ कल्पनाहि मकर महान। व्यथित होत यह मानि दुख अनजान ॥ सूक्षम अति तव कज-नाल को तन्तु । तवहूँ है फेसि जात भयावह जन्तु ।। तव तरग की सीमा यहि विधि नाहि । खेल्त जामहं चित-मराल सुख चाहि ।। भरे रतन मुकता की चियाधार ॥४१॥