पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय खंड 1.djvu/१२

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काल के काले पट पर कुछ अस्फुट लेखा, सब लिखी पडी रह जाती सुख दुःखमय जीवन रेखा' किन्तु, शेषगीत' की इन पक्तियो मे निजानुभूति की दशा और काव्यानुभूति की दिशा के सामरस्य मे अनुभूति एव अभिव्यक्ति के परस्पर साधारणीकरण की सहज भगिमा है जो सावधानतया विचाय है। उन्नीसवी शती जिन दूरगामी क्षेप विक्षेपो की सम्भावना लिये आई उनसे भारत और भारतीय वाङ्गमय धारा जिसे भारती ही कहते बनेगा अछूती न रह सकी। भारती इस लिये कि भापा का नाम-कथन देश- परक होता है और हिन्द जिसे देश नाम मान भाषा का नामकरण हिदी किया गया, वह तो अरबी सौदागरो की देन है । अत अपने समग्र देश की सज्ञा यदि भारत है तो इसकी सावदेशिक भाषा को भारती कहना क्या तक सगत न होगा? देश विदेश की घटनायें और पदाथ विज्ञान-गत नाना विधामो की विकासात्मक प्रगति बाहर से और मानव समाज के सामूहिक चेतना का प्रकृतिगत विकास क्रम भीतर से कुछ असाधारण और जवीयान हो एक नये युग को भूमिका बना रहे थे। सचरण के साधन प्रत्यह उन्नत १ मेरे जीवन ध्रुवतारा तेरी करुणा छायी हो वन नभ पा श्याम पसारा चचल ग्रह ना सूना पथ मचले जलनिधि मारा मेरी तरी तिरे पा कर तव मघुर ज्योति की धारा । (फाल्गुन १९९४) आज जीवन में तरल सुख विश्वमदिरा सा भरा ह प्राणमादन वह मधुरमुर। (आश्विन १९९४) -निक 'आज' बनारस वाराणसी के सामवार सस्करण मिति २९ कात्तिक सयन २००० (१५ नवम्बर १९४३) 'प्रसादजी एक निकट दशन' शीपक सस्मरण में अन्तेवासी डा. राजेन्द्रनारायण शर्मा द्वारा उद्धत एव प्रमान-वाङ्गमय परिशिष्ट-खण्ड में अय अपर्णा यत-साहित्य के साथ मुद्रित । प्राक्कथन ॥ ११॥