पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय खंड 1.djvu/११४

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

उद्यान-लता सुमनावलि मो लदि मोद-भरी, पतिया सुलखात नवीन हरी॥ भरि अब अहो तुम भेंटति को, तरु के हिय दाह समेटति को। टक राइ सरे हग फूलन ते, मकरन्द भरे असुवा-क्न तुम देवति हो केहि आम-भरी । नहिं बोलति हो तरु-पाम सरो॥ यह नीरम है तर जानत ना। अति सोमः जानि अजान तना ।। जितनी भुजगच पमारति हो, तितनो यह रूख निहाति हो । मलिया जहँ मीचि लगावत है। तहहो तुमको मन भावत है ।। तर पाइ ममोपि मुपागति हो। तेहि नै गर घाद सुलागति हो । चित्रावार ॥४९॥