पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय खंड 1.djvu/११५

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प्रभात-कुसुम घरे हिय माहिं असीम अनन्द । सने शुचि सौरभ सो मकरन्द | समीरन मे सुखमा भरि देत । प्रभातिक फूल हियो हरि लेत॥ मनो रमनी निज पीय प्रवास । फिरी लखि नै निज वैठि निवाम ।। निरेसत अश्रु भरे निज नैन । अहो इमि राजत फूल सचैन । कहो तुम कौन लख्यो शुभ-रूप । गही इतनी प्रतिमा सुअनूप ।। पड्यो तुम पै कहु कौन प्रकाश । इतो तुम माहि लखात विकास ॥ दिवाकर को कर सगम पाइ। अहो तुम फूल फिरो इतराइ ॥ अरे नहिं जानत फूल अजान । यहै करिहें तव मदन मान" प्रसाद वाङ्गमय ॥५०॥