पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय खंड 1.djvu/११६

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विनय जो सव व्यापक तऊ सबसे परे हैं। जो सूक्ष्म हैं पर तक सुधा धरे हैं। जो शब्द मे रहत शब्द न पार पावै । ताकी महान महिमा कवि कौन गावै ।। जो भानु मध्य नित भासत ओज धारे। शीताशु जासु लहि कान्ति प्रभा पसारे॥ जाको सुगन्ध मलयानिल पाइ डोले ।। ताके महान गुण - ग्रथिहिं कोन खोले । जाने कृपा कहिँ पाइ तरगशाली। गम्भीर गज्जन करै निधि फेन माली ।। कैसो अनत वह देव दयालु सोहै। जो वैठि के सुमन मन्दिर माहि मोहै ।। जो नित्य सौरभ सने मणि-पद्मवासी। जो हस मानम सरोवर को विलामी ॥ जो पुण्य छोर पय पावन को विचारै । आनन्द के तरल वीचिन मे विहारे । जो कल्पवृक्ष नित फूलत मोद भीने । जा देत स्वच्छ मगल ह नवीने॥ ससार को सदय पालत जोन स्वामी । वा शक्तिमान परमेश्वर को नमामी। चित्राधार ॥५१॥