पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय खंड 1.djvu/११७

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शारदीय महापूजन विश्व म आलोक चार लखात नव चहुँ ओर । धीर शीतल पौन पूर पराग वहत अधोर ।। नील निमल नवल सोहत सुपद मञ्जु अकाश । सुप्रसन महेश की लहिं महाशक्ति विकाश ।। शारदीय स्वरूप धरि आगमन जननी कीन्ह । धाय सो भरि के धरा को अमित सुख फर दोन्ह ।। देखिये यह विश्व व्याप्त महा मनोहर - मूर्ति । चित्तरजन परति आन द भरति है धरि स्फूति ॥ देवबालागन सचे पूजन करत सुग पाइ। तारकागन कुसुम माला देत है पहिराइ । चन्द्र का कपूर-नीराजन विमल आलोक । साजही सब शील सयुत धारि हृदय अशोक ॥ स्वच्छ नीर सुम्वादु सो मानहैं दया की धार । मोद को है लहत सव ही गहत गुनहिं अपार ।। कोटि कठन सो क्ढत क्ल कीर्ति नाद महेशि । विश्वधारिणि विश्वपालिनि जयति जय विश्वेशि ।। प्रसाद वाङ्गमय ॥५२॥