पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय खंड 1.djvu/११८

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विभो आलाकपूण सब लोकन म बिहारी । आनन्द क द जगवन्द्य विभो पुरारी ।। ब्रह्माण्ड मण्डल अखण्ड प्रताप जाके । पूरे रहे निगम हूँ गुण गाइ थाके ।। ईशान नाम तव, नाथ अनाथ के हो । विख्यात है' विरुद सद्गुण गाथ के हो । जो पै निहारि मम कमहिं ध्यान देहौ । तो आशुतोष पद ख्यातहिं को नसैहौ । जानी न जाय केहि कारण रीझते हो। क्यो मूढ मानव जनो पर सीझते हो । प्यारे मनुष्य उरमध्य निवास तेरो । सन्माग क्यो नहिं बतावहु जाहि हेरा॥ वीणा सुतार नहिं सुन्दर साजती है। आनन्द राग भरि क्या नहिं वाजती है। गावो सुचित्त शुचि मन्दिर माहि मेरे। पावो असीम सुख मोद महा घनेरे । हो पातकी तदपि हौं प्रभु, दाम तेरो। हो दास नाथ तव है हिय आस तेरो॥ है आस चित्त महें होय निवास तेरो। होवै निवास महं देव । प्रकास तेरो॥ चिनाधार ॥५३॥