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पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय खंड 1.djvu/११९

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विदाई सोयो सोयो जागिवे, रि आगम पहिचान । काहि पुकारयो वेग सो, अहो पपीहा प्रान॥ ही नहिं जातौ पहा ते, आय परे तुम मीत । अवही जो तुम जात हौ करत यहै अनरीत ॥ प्रकृति सुमन बरसत रही, भली रही अवरात । वा मिलिबे के समय मे, तेहि जनि करहु प्रभात ॥ नव बसन्त सो अतिथि तुम, आवहु हिय हरखाय । छोडि जात ग्रीपम तपन, जामा जिय जरि जाय ।। आवत बरसत नेहरस, अहो प्रेम घन मोत । करि लकीर दुरि जाहुगे धरि चपला की रीत॥ तुमते वढि कोळ नही, छली अहै जग माहिं । आवतही अधिकार म, करत सबै चित चाहि ॥ मनमानिक चित चाहिये, पहिले लीन्हा छीन । जान समय नीलाम करि, किय कोडी को तीन ॥ प्रिय जबही तुम जाहुगे, क्छु। यहाँ ते दुरि । आखिन मे भरि जायगी, तव चरनन को धूरि ॥ प्रसाद वाङ्गमय ॥५४॥ ,