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पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय खंड 1.djvu/१२१

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--- नीरद अहो नवल नीरद नवनीर नीर विधि सा भरि । बैठि समीरन वाहन पै गम्भीर गरज धरि ।। अम्बर-पय-आरूढ कृषक-गन को हरखावत । लोक दृष्टि ते सरहिं लखत जवही तुम आवत ।। भरे विमल जल झलकत नील नलिन अवली सो। अम्बर छाया है कादम्बिनि की पटली सो।। लखे नचत है शिखी मगन मदमत्त भये से। अहो समीरन नेर रहन दे इन्हे ठये से ।। हरित भूमि सकुलित शस्य सो सुरस रम्य बन । तिन महँ विहरत इतउत इन्द्रवधूटी गन घन ।। मेघ मण्डली मण्डित उत अम्बर शुचि राजत । तिनम दामिनि छटा सलोनी सुधर विराजत ॥ ल्खो अवहिं ये लगे परन पुनि सघन फुहारे । परिमल सुरभित वारि बूद पुनि वाधि कतारे ।। अब तो इन राख्यो न भेद अम्बर धरती मे। वारि सून सो बाधि दियो है एक्तती मै॥ प्रसाद वाङ्गमय ॥५६॥