यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।
प्रबल पवन लहि सग जलद के जल की धारा । धारत अद्भुत स्य मनोहर अति विस्तारा ॥ वेलिन को हहराइ छुडावन चहै तरुन सो। व्यथित होइ लपटाइ रही जे भरी करुन सो॥ X X X इत चातक चित लाइ लखत है तेरे मुख को। मधुर वारि शीतल की आशा धारे सुख को॥ क्यो इतनो तरसावत हो निज प्रेमीगन को। स्वाती लो पछताइ देहुगे जल सुखमन को॥ यह तुम लीन्हे अक माहि दामिनि सो। गरजत पुलकि पसीजत धावत सग मानिनि सो॥ नेक न रखहु विचार पथिक अरु विरही जन को। गरज न जानत, तेहिं रहत है धुन गरजन को॥ जान परत नहिं है गम्भीराशय तव मन को । करत कहा हो काह करोगे अपने मन को। पै हम हिय ते देत असीस अहं तुम को नित । समय समय पुनि आय सुधारस को वरसह इत ॥ चित्राधार ॥५७॥