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पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय खंड 1.djvu/१२३

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शरद-पूर्णिमा सु पूरब माहिं उग्यो छवि धाम । क्ला विखरावत है अभिराम ॥ अकास विभासत पूरन चन्द । समीरन डोलत मन्दहि मन्द ।। न बोलत है कहुँ कोक्लि कोर । सबै चुप साधि रहे धरि धीर ।। कनौं हिलिजात अहै द्रुम पात । समीर जवै तिन मे सरसात ॥ सुधा वरसावत है नभ चन्द । मनो प्रकृती हिय धारि अनन्द ।। सु मोहनि मन्न सुधारि सराग । बिखेरत है जग माहिं पराग | निसापति को लखि कै वधराज । भग्यो तम अग छिपावन काज। मनो द्रुम कन्दर मे थल पाइ । लियो विसराम अरामहिं जाइ॥ नदी धरनी गिरि कानन देश । सु छाजत है सब ही नव भैश ॥ धरे सुख सा सबही शुभरूप । लखात मनोहर और अनुप ॥ प्रसाद वाङ्गमय ।।५८॥