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पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय खंड 1.djvu/१२४

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संध्या तारा सध्या के गगन महँ सुन्दर वरन । को ही झलकत तुम अमल रतन ।। तारा तुम तारा अति सुन्दर लखात । तुम्हे देखिये को नहिं आनंद समात ॥ अनुकूल प्रतीची सो लखि दिनकर । लहि मलिनाभ छाया वारि मनोहर ॥ प्राची सन्ध्या सुकुमारी अति अनुपम । गहत अपूर्व एक तारा आशा सम ।। निराश हृदय शून्य विस्तृत गगन । आलोक्ति तारा आशा देखि ह्र मगन ॥ प्रभात मिलन आशा मनु हिय परि। एक टक देखे प्राची तरुणि सुमिरि ॥ नीलमनि माला माहि सुन्दर लसत । हीरव उज्ज्वल खण्ड विकाश सतत ॥ शामिनी चिकुर भार अति घन नील । तामे मणिसम तारा मोहत सलील ।। चित्राधार ॥ ५९॥