सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय खंड 1.djvu/१२६

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

चन्द्रोदय विशद विमल आलोक जासु अति ही मुद मगलकारी। चन्द नवल सुखधाम सोइ नभ मे निजकर विस्तारी॥ कुमुदिनि पूरन काम महा छविधाम निशा को स्वामी। मधुकर गन हुलमावन जन-मन भावन शुचि नभगामी । गहन विपिन सम गगन तासु वरवीर केगरी भारी । केशर वर विखराइ चन्द्र घूमत है बनि वनचारी। तम आखेट परत है डोलत सो लमि के भयभाजे । मनु श्रम युद्ध करा ते उपज्यो सो तारागन राजे॥ देव गोप जन मह्यो मही सम छोर सिन्धु चितलाई। नव नवनीत अश उडि लाग्यो के अम्बर छनि छाई॥ प्रकृति देवि निज लीला कन्दुक विधा किये कल्वेली। दियो उछाल गगन महं राजत सो परिपे रंगरेली ॥ नोट गगन पर युजर को यह सोहै घण्टा भारी। ध्वनि तापी नलिनी विकास हि मधुकर को गुजारी।। उज्ज्वल ना धन नीर गगन महें चन्द थमन्द प्रकामी। राजे जिमि नदनन्द गरे में कौस्तुभ चि सुखमामी ॥ चित्राधार ॥६१॥