इद्र-धनुष लखहु नील सित असित पीत आरक्तिम शोभा । मिलि एकहि सँग अद्भुत प्राची मे मन लोभा ॥ छितिज छोर लो कोर दाबि धनुपाकृति सोहै। सन्ध्या को आलिंगित वह सबको मन मोहै ।। काञ्चनीय निज करन डारि भूमण्डल ऊपर । पश्चिम दिशि को जात लखहु यह भानु मनोहर ॥ इत प्राची मे धनुप लखायो रंग अनुपम री। भेंट देत जनु भानुहि रतनन गगन जौहरी ।। नन्दन कानन विहरण शील अप्सरागन को। सूषित पट बहु रंग हरत है जे मुनिमन को ।। विधी गगन तारकस तानि बहु रग तार को। फेरत तिन पर रग घर अनगिनित वार को ॥ पावस धनहिं विदारन हेतु लियो जिमि दिनकर । पश्चिम दिगि को गये गगन मे धनुप राग्विकर ॥ विधी सघन धन को कमान है अति सुन्दर यह । जेहि छिपाइ पुनि माधि चलावत वारि वान यह ॥ पावस ऋतु को विजय वेजयन्ती के फहरत । नवल चितेरो सब रगा का लिसि जनु विहरत ॥ विधो भानु वे सप्त अश्व की है वल्गा यह । विधी मेघ-वाहन वाहन पै धरे धनुप यह ॥ चियाधार ॥६३॥
पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय खंड 1.djvu/१२८
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