सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय खंड 1.djvu/१२९

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

हृदय म करिके कवि नियोजित सुन्दर कल्पना । जब धरै प्रतिमा छवि अल्पना ।। जलद माल तरगिनि धार मे। प्रविसि कूलन और पहार म ।। तरल वीचि निनादन मे कहूँ। प्रकृति के मधुराक्षर को पढे ।। करन व्यक्त चहै वहि भाव को । पर न पावत कोउ उपाव को। तिमि करो तुम केलि अमन्द सो। छन्द सो॥ तदपि नाहिं कवौं दरसात हो। प्रगट होन चहौ छिपि जात हो। गगन सो पिन अन्त गंभीर हो। जलधि सो तुम नीरद नीर हो । बहुल नक्र - कुलाकुल भी रहो। तदपि रेहु उसास न धीर हो । कबहुँ बह्नि विलोडित होय के। धरत धातुहिं ज्या गिरि गाय के॥ तिमि रही मनही मा रोय के। सब विपाद विसारहु सोय के || निज लहे मगनाभि सुग व सो। मृग फिरै वन म मद अन्ध सो॥ (कुसुम सौरभ जानि) निराश है। पुनि सुधारत भूल उदास है ।। तिमि लहे निज सौरभ मोद मो। क्छुक सोजत काहि विनोद सा ॥ पुनि रही धरि के तुम मौन को। तुरत त्यागत हो भ्रम गौन को । कल निनादिनि वीर तरगिनी। जवहि गावति है रस रगिनी ।। तुम मिलावत वीन तबै चही । कोउ सुने तव ता चुप ह रहौ ।। प्रमाद वाङ्गमय ॥६६॥