पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय खंड 1.djvu/१४२

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घन धरे वदन बिलोके ठाढ्यो विधु बध्यो व्योम-बीच, छवि-किरनो की जनु फैली जाल-डोरी है ।। अनिलहु अन्तरिच्छ 8 कै खोले चूंघट को, तेरे रूप सो तो मरही की बरजोरी है । कलिया पराग ला गुलाल वगराये देत, ढारत प्रकृति मारद बैठि भोरी है । प्रेम-रग वोरि हसि हेरिले री मेरी लली । जिय ना जराव जरी जाय रही होरी है। घोर उठे रात अंधेरी, हठ मारुत है पुरवैया छाडिके कूलहि मातु को अब, सरे भवसिन्धु मे होत खेवैया ।। पाय 'प्रमाद' तिहारो सबै सुखी, होत तुही पतवार धरैया ॥ नाथ तिहारे सहारे चलावत, लक्ष्य तुही तुही यह जीवन नैया ॥ कियो नेह अहो, सब लोक कहावति जारी विसारी ॥ धायो रुखाई यही परिणाम, लह्यो सब सीखके प्रीति तुम्हारी ।। 'लोग पावत हैं यह सांची कहावत आगे उतारी।। आपनी देसि बहाई अहो, अव माफ करो यह चूक हमारी ॥ भई ढीठ फिरे चल चन्चल-सी, यह रीति नही इन की है नई॥ नई देखि मनोहरता क्तहे, थिरता इनमे नहिं पाई गई। गई लाज सम्प-सुधा चसि के, इनची न तबौं कुटिलाई गई। गई सोजत ठौर-ही-ठौर तुम्हें, अग्पियाँ अन नो हरजाई भई॥ चित्राधार ॥७९॥ जो तुमसे गवाइ के