पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय खंड 1.djvu/१४३

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अहो नित प्रेम करत दिन गयो । देखत रह्यो जाहि मन भायो भयो यहै नित नयो॥ कमल बकुल मन्दार जहा ही कछुक कुसुम रम भयो । सौरभ मित्यो जहाँ मनमोहन मनमधुकर रमि गयो ।। पाहनहूँ मे देखि चिकनई मन यह बिछलि गयो। कलनादिनी देखि सरिता तेहि मे हू बहि गयो । भटक्यो नही भंवर के भयते दूनो साहस भयो । कुसुमित सासा देखि भुलान्यो तापर वैठि गयो । कटक की कठिनाई हूँ को मूरख विस्मृत क्यिो । चढयो कढयो सवभाति छिद्यो पुनि विध्यो नही हटिगयो।। तो यो आनंद पायो याही में सब सुख को ढयो । सहने परे जक ये दुस बहु तऊ न साहस छयो । देखि निठुरता प्रेमास्पद को पीछे पगि जनि दयो । प्रेम 'प्रसाद' समुझि यहि रे मन हिये लगाय लयो । दियो भल उत्तर है के मौन । रह्यो सबै मन दूत समुझि के जो तुम सोच्यो तीन ॥ रह्यो नही बोलन हूँ लायक तासो बोत्यो जोन । ताको लाज निवाह्यो चुप है कहो आचरज कौन ? ढीठ है करत सबैही पाप । जानत सन करुना निवान हो, हरिहौ सव सताप ॥ होय दुमी इा पाप करन से तुमको जाय पुकरिहै । करुनानिधि फल देइ सक्त नहिं, उनहूँ को दुख हरिहैं। कमलहिं चोट देत हैं मधुकर, तिन पर करना करिकै । मनमोहन मकरद मधुर ते तिन्हे देत है भरिकै । हे पावन । पतितन के सरवस | दीन जनन के मीत । सब बिसारि दुगुन निज जन को, देह चरन मे प्रीत ॥ प्रसाद वाङ्गमय ॥ ८०॥