पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय खंड 1.djvu/१४४

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पुन्य औ पाप न जान्यो जात । मर तेरे ही काज करत हैं और न उन्हे मिरात ॥ सम्वा होय सुभ सोख देत कोउ काहू को मन लाय । सो तुमरोही काज सँवारत ताको वडो बनाय ।। भारत सिंह शिकारी बन-वन मृगया को आमोद । सरल जीव की रक्षा तिनसे होत तिहारे गोद ॥ स्वारथ औ परमारथ सवही तेरो स्वारथ मीत । तब इतनी टेढी भृकुटी क्यो? देहु चरण में प्रीत ।। छिपि के झगडा क्या फैलायो? मन्दिर मसजिद गिरजा सब म योजत सब भरमायो । अम्बर अवनि अनिल अनलादिक कौन भूमि नहिं भायो। कढि पाहनहूँ ते पुकार बम सबमो भेद छिपायो । कूवा ही से प्यास बुझत जो, सागर खोजन जावें- ऐसो को है याते सबही निज निज मति गुन गावें ।। लोलामय मव ठौर अहो तुम, हमको यहै प्रतीत । अहो प्राणवन, मीत हमारे, देहु चरण मे प्रीत ।। ऐसो ब्रह्म लेइ का करिहैं ? जो नहिं करत, सुनत नहिं जो कछु, जो जन पोर न हरिहें। होय जो ऐसो ध्यान तुम्हागे ताहि दिखावो मुनि को। हमरो मति तो, इन झगडन को समुझि सकत नहिं तनिको। परम स्वारथी तिनको अपनो आनंद रूप दिखाओ। उनको दुग्न, अपनो आश्वासन, मनते सुनौ सुनाओ। करत सुनत फल देत लेत सब तुमही, यहै प्रतीत । वटै हमारे हृदय सदाही, देहु चरण में प्रीत ।। और जव कहिहें तब का रहिहें । हमरे लिए प्रान प्रिय तुम सो, यह हम कैसे सहिहैं । तव दरबारह लगत सिपारस यह अचरज प्रिय पैसो? कान फुकावे कौन, हम कि तुम । रुचे करो तुम तैमो।। ये मन्त्री हमगे तुम्हरो कछु भेद न जानन पावें। लहि 'प्रसाद' तुम्हरो जग मे, प्रिय जूठ ग्वान को जावें॥ चियापार ॥१॥