इसकी गर्मी मरु, धरणी, गिरि, सिन्धु, सभी निज अतर मे रखते हैं आनन्द-सहित, है इसका अमित प्रभाव महा। इसके बल से तरुवर पतझड कर वसत को पाते हैं इसका है सिद्धात-मिटा देना अस्तित्व सभी अपना प्रियतम-मय यह विश्व निरखना फिर उसको है विरह कहाँ फिर तो वही रहा मन मे, नयनो मे, प्रत्युत जग भर मे, कहाँ रहा तब द्वेप किसी से क्योकि विश्व ही प्रियतम है, हो जब एसा वियोग तो सयोग वही हो जाता है यह सज्ञायें उड जाती हैं, सत्य सत्व रह जाता है।" धीरे-धीरे स्वर लहरी-सी मूर्ति लोप हो गई वही प्रेम विम्ब से स्वच्छ चन्द्र मे अपने क्थन सदृश उसने मिटा दिया अस्तित्व व्यक्ति का, केवल प्रेम-सुधाकर था। धीरे-धीरे बीत चली रजनी, आलस को साथ लिये स्वप्न-सदृश निद्रा भी टटी, वन विहा के कलरव से मिटी मलिनता, रवि-वर पारर उपा उठ खडी हुइ अहो जैसे प्रिय कर का अवलम्बन किये प्रेयसी उठती है, क्योकि हो रहा था प्रभात सब प्राणी मात्र निरखते थे राग रक्त अरणोदय सहसा हृदय गगन मे सग हुआ फैला गया उत्साह-सदृश अभिनव उज्ज्वल थालोक वहां जिममे प्रेम-पथिक अपने आनद माग पर चल निकला। यो ही वह विचरण करते, बहु देश निरग्वता नयनो से प्रियतम-मय यह विश्व समझता यहा घूमता आया है। बोली तब तापमी-कथा सुनते सुनते जिसके मुख पर- बहुत भाव थे झलक गये-जैमे लहरी-लीला सर मे- "क्यो विशोर क्या अब तक तुमको उस मिट्टी को 'पुतली' का ध्यान बना है ? क्या अभागिनी याद तुम्हे अब भी रहती। उस दुखिया का ध्यान लगा रखने से हो तुम दुखी हुए "कौन ? चमेली । अरे दयानिधि, यह क्या कैसी लीला है। यह कैसा है वेश? तुम्हारा वह सब वैभव कहा गया? 1" प्रेम प्रथिक ॥९७॥
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