? क्हा स्निग्ध मौदय तुम्हारा? वह लावण्य कहा है अव वे सब अलस-कटाक्ष कहा है? वे धुंघराले बाल कहाँ ? वह उन्मादक रूप, शिशिर के बूंद-सहश क्या ढलक गया सच है, या कि स्वप्न है, क्या आश्चय आज मे देख रहा यह परदा कैसा उठता है जो आखो पर छाया था नही नही-हाँ वही चमेली हो तुम, मेरी पुतली हो । ओह । किन्तु दिन बीत गये-वह समय कहा-का-कहा गया । अभिलापाएँ रूप बदलकर भय हो गइ अहो, कहो- यह कुहेलिका कैसी फैली जिसम मर बीती वातें दिन की तरह छिपी, विस्मृति का नीला परदा डाल दिया।' "हा किशोर, यह वही तुम्हारी वाल्यसवी पुतली ही है जिसे देसते हो कानन मे बनी तापसी बैठी है कर कल्याण कामना-जिसकी माता ने अपने हाथा अपनी कन्या का दुर्भाग्य सरीदा' --वहा चमेली ने- "उस विवाह से मेरी सारी स्वतन्त्रता छीनी जाकर मुझे न कुछ भी मिला, एक क्षण स्नेह कभी करनेवाला- -प्रेम । कहा ?-करणा की दृष्टि न मेरी ओर कभी घूमी जब तक माता पिता रहे जीवित तव तक कुछ बात नही फिर तो लामो दोनो घर की पत्नी उनसी दासी थी हा किशोर, मैं भी सब देकर वेतनभुक्त पुजारी-मी उस पत्थर का आराधन दिन रात क्यिा ही करती थी प्रेम सहानुभूति का तो कुछ लेश न किमी हदय म था कभी नही आतरिक भाव प्रकटित करने को जी भरकर अश्रु दिखाई पडे, रही नहलाती उससे अतर म- हृदय-रल वेदी पर जिमको पहल मे विठलाया था क्याकि और था क्या? पूजा करने का पास पुजारी के हृदय विश्व का तत्त्व निहित है जिसम दो ही असर मे उसकी लिपि पढने का यत्न न करता निष्ठुर हो कोई प्रल तत्त्व मे खंडहर खुदवाता फिरता है जहाँ कही नही देखता है नवनीत रचित कितने सुन्दर मन्दिर पाकर हलकी आच गले वे ढेर हुए है अतर म वह नैसर्गिक शिल्प कल्पना म भी क्या आ सस्ती है ? वाङ्गमय ॥९८॥
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