पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय खंड 1.djvu/१६४

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दिन-पर दिन योही बीते वह कैसे कोई कहे अहो जो कुछ था-सवस्व उडाकर उन्ही स्वार्थी मित्रो मे- जो दरिद्र होने पर उनकी ओर देख सकुचाते थे।- पति मेरे श्मशान-वासी होकर धरणी से चले गये कुछ भी शेप नही या धरणी म-इस नीरस जीवन मे केवल दुख निराशामय था, अधकारमय अतर था धन-मद वाले की पत्नी हुई, अनाया विधवा भी लज्जा । सच ही लज्जा मुझको क्हने देती नही उसे जिसे नर पिशाचो ने करने का उद्योग किया । मुझसे- काम-वामना प्रकट की गई अहो मिन की जाया से । घोर दुख-मागर मे 'उभचुभ' हो न डूबने पाती थी उस अनाथ के नाथ दीन-दुखहारी को अपना पाया। वृद्ध एक प्रेरित उनसे ही एक दिवस आकर बोला- "पुनी ! अब तुम वास यहा का छोडो, शीघ्र निकल जाओ, जो आश्रय हो और तुम्हारा वहा रहो जाकर । इमको- छोडो, है यह नरक-तुम्हारे रहने के उपयुक्त नहो।" मैंने कहा-"पिता ! मेरा आश्रय प्रभु चरण छोडकर और नही रहा ससार वीच । हो, तटिनी की तरङ्ग भी है क्याकि सहारा ग्हा न कुछ भी अब इस मेरे भव तम मे !" कहा वृद्ध ने-“पुत्री, जीवन-पथ मे शिक्षा कडी न दे जो दुवल होकर जाता है, परम परीक्षक देग उसे वहाँ गोद म आदर देकर उसे बिठाता भी नहीं। दूर यहा से एक जमीदारी मेरी है। गाति वहाँ- जीवन भर प्रयत्न कर सग्रह की है मैंने । चलो वही, शाति-कुटोर बनाकर छोटे मे कानन म, प्रभु-पद म निभय होरर रहो,-वहां कोई शका का नाम नही ।" तब से आगर यही पिताती है जीवन दुरसमय अपना, संग मृग सहचर हुए, यही झोपडी हुई मन्दिर अपना, जीना मोत वहा रे आया मुथको ऐसे स्थल पर इमे पहानी ममयो अथना स्वप्न कहो निज पुतली का।' फिर तो भाग दृग बामू चौधारे रगे बहाने । हाँ, सचमुच ऐसा वरुण दृश्य क्या वरणानिधि को भाता है? प्रेम-पथिक ॥१९॥