पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय खंड 1.djvu/१६५

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कृपा नाव क्या उनकी इस सागर मे तैरा करती है ? किसी मनुज का देख आत्मबल कोई चाहे कितना ही करे प्रशसा, कितु हिमालय-मा भी जिसका हृदय रहे और प्रेम करुणा, गगा यमुना की धारा बही नही कौन कहेगा उसे महान् ? न मरु मे, उसमे अतर है । करुणा यमुना, प्रेम जाह्ववी का सगम है भक्ति प्रयाग जहा शाति अक्षयवट बन कर, युग युग तक परिवधित हो। नीलोत्पल के बीच सजाये मोती-से आसू के बूद। हृदय-सुधानिधि से निकले हो, सब न तुम्हे पहिचान सके प्रेमी के सवस्व अश्रुजल चिरदु खो के परम उपाय । यह भव परा तुम्ही से सिञ्चित होकर हरी-भरी रहती उन हृदयो को शीतल कर दो-जो परितापित है दुख से । बीत रही थी रजनी भी प्रति पत्तो से दूदे हिम की ढुलक रही थी, वे सब दाना के आसू के साथ वहा । क्हा जलद गभीर-कण्ठ से तब किशार ने पुतली से- "जीवन के पथ मे सुख दुख दोनो समता को पाते है, जिसे देखकर सुखी आज सब लोग सराहा करते है कौन कहेगा-वही मानसिक कितना कष्ट उठाता है, अथवा, चिर दरिद्र को भी सतोष सुखी करता कितना । वत्तमान सुख दुख मे पड कर प, विषाद मानता जो उपन्पास लेखक है वह, परिणाम स्थिति ही सच्ची है। चिर दुखी को सुख को आशा उसे असीम हप देती सुग्वी नित्य डरता रहता है ध्यान भविष्यत् का करके वह कल्याण-कामना, जो जगजनक सभी की करता है व्यक्तिमात्र के लिए नहीं है। दुख देखकर अपना ही मतसमझो सब दुग्वी जगत को, मत लाछन दो ईश्वर को। शिव समष्टि का होता, इच्छा उसकी पूरी होती है अप्रत्याशित, अप्रकटित, कल्याण विश्व का करता है क्योकि विश्वमय है विश्वेश, रहस्य प्रेम के ये उसके। हो केवल सयोग कहो फिर वियोग की रूखी फीकी- बिना स्वाद उसका क्या है। यह लोलामय की लीला है। केवल स्मृति दुखदायक है-उसको भूलो सपना समझो, प्रसाद वाङ्गमय ॥१००। 1