पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय खंड 1.djvu/१७३

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

वशी रख मे होता पूण दिगन्त है जो परिमल-मा फेल रहा आकाश म। प्रकृति चिन-पट-सा दिखलाती है अहा, कल-कल शब्द नदी से भिन्न न और का, शान्ति | प्रेममय शान्ति भरी है विश्व मे। सुन्दर है अनुकूल-पवन, आनन्द में झूम-झूमकर धीरे-धीरे चल रहा पिये | प्रेम-मदिरा विह्वल-सा हो रहा कणधार हो स्वय चलाता नाव को। नौके। धीरे, और जरा धीरे चलो, आह, तुम्हे क्या जत्दी है उस ओर की। कही नही उत्पात प्रभजन का यहा। मलयानिल अपने हाथो पर है धरे तुम्हे लिये जाता है अच्छी चाल से प्रकृति सहचरी सी कैसी है साथ मे प्रेम-सुधामय चन्द्र तुम्हारा दीप है नौके । है अनुकूल पवन यह चल रहा, और ठहरती, हा इठलाती ही चलो। ज्योतिष्मान महाराज इस तट कानन को देखिये, कैसा है हो रहा सघन तरु-जाल से। इसी तरह यह जनपद पहल या, प्रभो। कानन-शैल भरे थे चारो ओर ही हिंस्र जन्तु से पूण, मनुज-पशु थे यहा । आय्य-पूव-पुरुषो को ही यह कीर्ति है, जो अब ये उद्यान सजे फल, फूल से, बने मनोहर क्रोडा-कूट विचिन ये। इक्ष्वाकु-कुल भुजबल से निर्बीज ही हुए दस्युदल, अव न कभी वे रोष से आख उठाते हम आर्यां को देख के। माय-पताका है फहराती अरुण हो। प्रसाद वाडमय ॥१०८॥