पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय खंड 1.djvu/१७४

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हरिश्चन्द्र आर्यों के अनुकूल देवगण हैं सदा विश्व हमारा शासन अभिनय रग है हम पर है दायित्व सभी सुख-शांति का सब विभूतिया और उपकरण गव के आय्य जाति के चरणो मे उपहार है। ( नेपथ्य म घार गजन ) यह कैसा उत्पात । चलो जल्दी करो माझी । तट पर नाव ले चलो शीघ्र ही। माझी प्रभो । स्तब्ध है नाव, न हिलती है। अरे देखो तो इसको क्या है, है हो गया। (नेपथ्य से गजन के साथ) मिथ्यभापी यह राजा पापण्ड है इसने सुत बलि देना निश्चित था क्यिा जब वह पहिनेगा हिरण्यमय वम को। राजकुमार हुआ है अव वलि योग्य जय तो फिर क्यो उसकी बलि यह करता नहीं ? बार-बार इसने हमको वचित किया उसका है यह दण्ड, आह । हतभाग्य यह जा सकता है नहो कही भी नाव से । हरिश्चन्द्र आह । देव यदि आप जानते समझते कितनी ममता होती है सन्तान की देव । जन्मदाता हैं फिर भी अब नही देर करूंगा, बलि देने मे पुत्र की। जो पर चुका प्रतिज्ञा उमो भूल के क्रोधित होने का अवमर दूंगा नहीं हे समुद्र के देव । देव आकाश में, शान्त हुजिये, क्षमा कोजिये, दीन को।