पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय खंड 1.djvu/१८०

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वहां न छाया भी मिलती है धूप मे। कहो प्रिये, अव फिर क्या करना चाहिए? तारिणी हाय | क्या कहे प्राणनाथ इस भूमि मे, अब तो रहना दुष्कर सा है हो गया। ( नेपथ्य में रोहित-) "घबराओ मत अजीगत में आ गया।" (प्रवेश करके) रोहित कहिये क्या है दुख आपको जो अभी इतने व्याकुल होकर यो किस बात को सोच रहे थे। क्या पशुओ का दुख है ? अजीगत तुम तो जैसे सत्य बात हो जानते और दिखाई देते राजकुमार-से, स्वणखचित यह शिरस्राण है कह रहा वम बना बहुमूल्य वत्ताता विभव को किन्तु सकोगे समझ मूख के और विक्ल पीडित अकाल से प्राण की जीवन की आकुल आशा जव त्रस्त हो एक-एक दाने का आश्रय खोजती वह वीभत्स पिशाच खा लिया चाहता जव अपना ही मास । अधीर विडम्बना हंसती हो इन दुवल शब्दो पर, अजी तब भी तुम कुछ दोगे मुझे सहायता रोहित एक बात यदि तुम भी मेरी मान लो। अजीगत मानूंगा कैसी ही निष्ठुर बात हो। दुख को ? क्रुणालय ॥ ११५॥