पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय खंड 1.djvu/१८१

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रोहित सौ दूंगा मे गाय तुम्हे, जो दो मुझे एक पुत्र अपना, उम पर सव सत्त्व हो मेरा, उसको चाहे जो कुछ में करूं। तारिणी दूंगी नही कनिष्ट-पुत्र को मैं कभी। अजीगत और ज्येष्ठ को मैं भी दे सकता नही रोहित तो मध्यम सुत दे देना स्वीकार है- वलि देने के लिए एक नरनेध मे? (ऋषि-पत्नी मुंह ढाप कर भीतर चली जाती है और अजीगत कुछ सोचने लगता है) अजीगत हा हा । मुयको सब बातें स्वीकार हैं। चलो मुझे पहले गायें दे दो अभी । रोहित अच्छा, उसको यहाँ बुलाओ देख लें हम भी , मध्यम पुत्र तुम्हारा है कहा ? अजीगत ( नेपथ्य की ओर मुख करके-) शुन शेफ ! ओ शुन शेफ । । आ जा यहाँ । (मार खाने के भय से, खेल छोटकर शुन गेफ भागता हुआ आता है ) शुन शेफ क्या है वावा, क्यो हो मुझे बुला रहे ? मैने कोई भी न दिया है दोप, जो आप बुलाते मुझे मारने के लिए। अजीगत चुप रह ओ मूख यहाँ खडा रह, (राहित से)- यही मध्यम मेरा पुन है । । बोलना मत, प्रसाद वाङ्गमय ।।११६ ॥