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पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय खंड 1.djvu/१८४

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पुन न रहता, तो क्या होता कौन फिर दता पिण्ड तिलोदक । यह भी समझिये कुल के पुण्य-युरोहित देव वसिष्ठ से ( वसिष्ठ का प्रवेश, राजा अभ्युत्थान देता है ) वसिष्ठ राजन् । विजयी रहो। सुनी सब बात है, यह तो अच्छा काय्य कुँवर ने है किया । यदि पशु का है पिता, दे दिया सत्य ही उसने बलि के लिए इसे, तो ठीक है। बदले इसको दीजिये वलि, तब देव प्रसन तुरत हो जायेंगे और आप भी सत्य-सत्य हो जायेंगे । ( शुन सफ से) क्या जी । तुमको दिया पिता ने क्या इन्हे मूल्य लिया है? राजपुन के शुन शेफ सत्य प्रभो । सब सत्य है। वसिष्ठ फिर क्या तुमको यह सत्र स्वीकार है ? शुन शेफ जो कुछ होगा भाग्य और निज कम मे । वसिष्ठ अच्छा फिर सब यज्ञ-काय्य भी ठीक हो और शीघ्र करना ही इसको उचित है। हरिश्चन्द्र जो आज्ञा हो, में करता हूँ सब अभी। (सवका प्रस्थान) करणालय ॥ ११९।।