पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय खंड 1.djvu/१८९

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राजन् । सब तप और सत्य तुम कर चुके यदि अपनी इस प्रजा-वृद का ध्यान हो दुख दूर करने का कुछ उद्यम करो। हरिश्चन्द्र हे कोशिक ऋपिवय्य। इसे कर दीजिये क्षमा, और सुव्रता स्वतन्त्रा हो ऋपे । चरणो म राज्य आज' उत्सग है। विश्वामित्र अस्तु। सुव्रते। कहो कहाँ फिर तुम रही मेरे जाने वाद ?- और स्वय सुवता प्रभो ! उस ग्राम से लाच्छित करके देश-निकाला हो मिला, क्योकि गर्भिणी थी मैं। इससे घूमती भायी मै इस ऋषि आश्रम के पास मे। प्रसव-समपण किया इसी की गोद में अन्त पुर में दासी बनी वसिष्ठ धन्य सुव्रते । साधु सुशील । धन्य तू पाया पति, सुत, फिर अपने सौभाग्य से। विश्वामित्र करुणा करणालय जगदीश दयानिधे । सब यो ही आनन्द सहित सुख से रहे। ( सदवी आर देख कर -) जगन्नियन्ता का यह सच्चा राज्य है सबका ही वह पिता, न देता दुख है कभी किसी को। उसने देखा सत्य को हरिश्चन्द्र के, जिसने प्रण पूरा किया उद्यत होकर करने में वलिकम्म के। प्रसाद वाङ्गमय ॥१२४॥