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पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय खंड 1.djvu/१९४

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सैनिक ने फिर दूर दिखा सकेत से कहा कि “वह जो झुरमुट-सा है दीखता वृक्षो का, उस जगह मिलेगा जल, उसी घाटी तक वस चली-चलो, कुछ दूर है।" व्याकुल को 1 उन घोषित हुआ विस्तृत तरु शाखाओ के ही बीच मे छोटी-सी सरिता थी, जल भी स्वच्छ था, कल-कल ध्वनि भी निकल रही सगीत-सी आश्वासन-सा देतो हुई। ठहरा, फिर वह दल उसके ही पुलिन मे प्रखर ग्रीष्म का ताप मिटाता था वही छोटा-सा शुचि स्रोत, हटाता क्रोध को जैसे छोटा मधुर शब्द, हो एक ही। अभी देर भी हुई नही उस भूमि मे दर्पोद्धत यवनो के उस वृन्द को, कानन अश्व-पद-शब्द से, 'लू' समान कुछ कुछ राजपूत भी आ गये। लगा झुलसने यवनो का दल तेज से हुए सभी सनद्ध, युद्ध आरम्भ था- पण प्राणो का लगा हुआ-सा दीखता। युवक एक जो उनका नायक था वहाँ राजपूत था, उसका वदन बता रहा जैसी भी थी चढी ठीक वैसा क्डा चढा धनुप था, वे जो आँखें लाल थी तलवारो का भावी रग बता रही। यवन पथिक का झुण्ड बहुत घबरा गया इन कानन केसरियो की हुकार से। वहा युवा ने आग बढ कर जोर से "शस्त्र हमे जो दे देगा वह प्राण को पावेगा प्रतिफल मे, होगा यवन-चमूनायक भी कुछ कादर न था, कहा-"महँगा करते ही कतव्य को- वीर शस्त्र को देकर भीख न मागते ।" मुक्त भी।" महाराणा का महत्त्व ॥१३१॥