पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय खंड 1.djvu/१९७

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वैव्यैठे वन-योभा थे देखते- अपनी लीला भूमि, सुगौरव पुज्ज की। सालुम्बापति आये, अभिवादन दिया। आय्यनाथ ने कहा-"यहो सरदारजी, समाचार है कैसा अव मेवाड का 711 कृष्णसिंह ने कहा-"देव । इम प्रात में एक बार फिर आय्य राज्य अव हो गया, वीर राजपूतो की तलवारें खुली, चमक रही मेवाड-गगन में ज्वलित हो, भाग रहे हैं भीत यवन मेवाड से। राजन् समाचार है सुसमय देश का अभी यवन का एवं वृन्द वदी हुआ राजकुंवर ने भेजा है उसको यहाँ दुग-द्वार पर वे बदो है और भी, सुनिए, उसमे है नवाब-पत्नी यहाँ ।" आय्यनाथ ने कहा-"किया क्सिने उसे वदी? स्त्री का क्षत्रिय देते दुम्ब नहीं।" कृष्णसिंह ने कहा-"प्रभो उस युद्ध म जितने बदी सभी भेजे गये। अब जो आज्ञा मिल बस वही ठीक है वही किया जावेगा, पर यह बात भी व्यान कोजिए, वह वनिता है शत्रु की। दिलीपति का सैनप हो, आया यहाँ जो रहीमखा अस्वर चिर मित्र है उसकी हो परिणीता है यह सुन्दरी इसका वन्दी रहना नतिक दृष्टि से ठीक नही क्या? जब तक ये सर शात हो।" का कहा तमव कर तर प्रताप ने-"क्या कहा अनुचित बल से लेना काम इस अबला के वल से होगे सवल क्या? सुकम है। प्रसाद वाङ्गमय ॥ १३४॥