पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय खंड 1.djvu/२३४

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जल-विहारणी चन्द्रिका दिखता रही है क्या अनूपम सी छटा खिल रही हैं कुसुम की कलियाँ सुगन्धो की घटा सर दिगन्तो मे जहाँ तक दृष्टि-पथ की दौड है सुधा का सुन्दर सरोवर दीखता वेजेड है रम्य कानन की छटा तट पर अनोखी देख लो गान्त है, कुछ भय नहीं कुछ समय तक मत टलो अन्धकार घना भरा है लता और निकुज मे चन्द्रिका उज्ज्वल बनाता है उन्हे सुग्व-युज मे शैल क्रीडा का बनाया है मनोहर काम ने सुधाषण से सिक्त गिरिश्रेणी खडी है सामने प्रकृति का मनमुग्धकारी गूंजता सा गान है शैल भी सिर को उठाकर खडा हरिण समान है गान मे कुछ बीन की सुन्दर मिली झनकार है कोरिला की कूक है या भृग का गुजार है स्वच्छ-सुन्दर नीर के चचल तरगो में भली एक छोटी-सी तरी मनमोहिनी आती चली कानन कुसुम ॥ १७३।