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पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय खंड 1.djvu/२३५

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पख फैलाकर रिहगम उड रहा भावास में या महा इक मत्स्य है, जो खेलता जल-वास में चन्द्रमण्डल की सभा उस पर दिखाई दे रही साथ ही में शुक्र की शोभा अनूठी ही रही पवन-ताडित नीर के तररित तरगो में हिले मजु सौरभ-पुज युग ये क्ज पैसे हैं खिले या प्रशान्त विहायसी में शोभते हैं प्रात के तारिवा-युग शुभ्र हैं आलोक पूरन गात ये या नवीना यामिनी को दीसती जोडी भली एक विकसित कुसुम है तो दूसरी जेमे क्ली जल विहार विचारकर विद्याधरा की वालिका था गई हैं क्या? कि ये हैं इन्दु-कर की मालिका एक पी तो और हो वांकी अनोखी आन है मधुर-अधरो में मनोहर मन्द मृदु मुसक्यान है इन्दु में उस इन्दु के प्रतिविम्ब वे सम है छटा साथ में कुछ नील मेघो की घिरी सी है घटा नील नीरज इन्दु के आलोक में भी खिल रहे विना स्वातीविन्दु विद्रुम सीप में माती रहे रूपसागर-मध्य रेखा-वलित यम्बुक माल है क्ज एक खिला हुआ है, युगल किन्तु मृणाल है चार-तारा-वलित अम्बर बन रहा अम्बर अहा चन्द्र उसमे चमकता है, कुछ नहीं जाता कहा क्ज कर पी उगलियां हैं सुन्दरी के तार में सुन्दरी पर एक कर है और ही कुछ तार में चन्द्रमा भी मुग्ध मुख-मण्डल निरखता ही रहा कोक्लिा का कठ कोमल राग में ही भर रहा इन्दु सुन्दर व्योम मध्य प्रसार कर विरणावली क्षुद्र तरल तरग को रजताभ करता है छली प्रकृति अपने नेन सारा से निरखती है छटा घिर रही है घोर इक आनद घन की सी घटा प्रसाद वाङ्गमय ॥ १७४॥