- नादात्मक वागात्मक तत विश्व-छन्द मे परिणत ज्ञान और उसकी बावात्मक्ता किसी पुरुष-विशेष अथवा देश विशेप की निजी सम्पदा नही उसमा स्वस्प पूण, अभग और अद्वय है। उसके चिदाकाशमय स्वाग पर यह विश्व, आलेख्य और आलिखित होता है। यह ध्रुव भी है धारा भी और प्रसाद भारती की आँखो का अपने प्रेयमय कलेवर म श्रेयात्मक सत्ता चैतन्य वियद्व्यापी 'ध्रुवतारा' भी । किन्तु आश्चय है, 'एकमेवाद्वितीयम्' के आलोक म 'वसुदैव कुटुम्बकम हो नहो 'स्वदेशो भुवननयम्' भी कहने वालो की सन्तति अह कृति पाश से निजस्व की महाव्याप्ति को लघु-परिसीमनो के खूटे बाध, आज विश्व कल्याण की बातें करती यज्ञ रचती है। फलत, देश- विग्रह-जाति विग्रह की कृत्रिम सीमामओ ने समष्टि-चेतना की गाडी के आगे काठ रख दिया है । और, आज नरस्थ नारायण सत्रया उपेक्षित है और, प्रस्तरीभूत पापाण-कला वैकुण्ठवासी, आराध्य बन बैठ है । यह देख प्रसाद भारतो को कहना पड गया, 'एसा ब्रह्म लेइ का करिह, जो नहिं करत, सुनत नहिं जो कछु, जो जन पोर न हारहे (मकरन्द- विन्दु, चिनाधार)। उसकी एकमेव दृष्टि 'जनपीर किंवा विश्व की दुसावेदना पर आदित रही है, और उसी के उपचार-सहिता २५, 'दुख- दग्ध जगत आर आनन्द पूण स्वग' को एकीकृत करने म तत्पर समूचा प्रमाद-वाग्मय प्रस्तुत है। अस्तु, वैश्वदेव की वैश्वानरी अचियो के सवाद ग्रहण करने की क्षमता का जब सम्पूण नियात हो गया तब किसी भी लुप्त विस्मृत भाव परम्परा अथवा अभिव्यक्ति-शैली को आयातित ठहराना वैसी कुण्ठा मे कितना सरल होगा, यह बताने की आवश्यक्ता नहीं । ऐसी दशा मे, इस नई काव्य धारा के मूल स्रोत के प्रति इगित मे कहा गया कविता के क्षेत्र मे पौराणिक युग की किसी घटना अथवा देश विदेश की सुन्दरी के वाह्य वणन से भिन्न जब वेदना के आधार पर स्वानु- भूतिमयी अभिव्यक्ति होने लगी तब हिन्दी मे उसे छायावाद के नाम से अभिहित किया गया'--'बाह्य उपाधि से हट कर आन्तर हेतु की ओर कविक्रम प्रेरित हुआ (यथाथवाद और छायावाद, काव्य और कला तथा अन्य निबन्ध ) । वेदना का पूवचित प्रसग इस उद्धरण के आलोक मे भी ध्यातव्य है। पुनरपि, यहा कहना होगा कि इस उरलेख का तात्पय छायावाद नाम से अभिहित इस नई धारा के वस्तु-तत्व, स्रोत तत्व और प्रेरक- - } - प्राक्क्थन ॥२७॥
पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय खंड 1.djvu/२६
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