पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय खंड 1.djvu/२५२

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विरह अश्रु रोते प्रियजन दृग-सीमा से जभी दूर होते ये नयन वियोगी रक्त सहचर-सुखक्रीडा नेत्र के सामने भो प्रति क्षण लगती है नाचने चित्त मे भी प्रिय, पदरज मेघाच्छन्न जो हो रहा हो यह हृदय तुम्हारा विश्व को खो रहा हो स्मति-सुख चपला की क्या छटा देखते हो अविरल जलधारा अश्रु मे भीगते हो हृदय द्रवित होता ध्यान मे भूत ही के सब सबल हुए से दीखते भाव जी के प्रति क्षण मिलते हैं जो अतीताब्धि ही मे गत निधि फिर भाती पूर्ण की लब्धि ही मे यह सब फिर क्या है, ध्यान से देखिये तो यह विरह पुराना हो रहा जांचिये तो हम अलग हुए हैं पूण से व्यक्त होके वह स्मृति जगती है प्रेम की नीद सोके . कानन कुसुम ॥ १९१॥