पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय खंड 1.djvu/२५३

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गगा सागर प्रिय मनोरथ व्यक्त करें कहो जगत्-नीरवता कहती 'नहीं' गगन मे ग्रह गोलक, तारिका सब क्येि नत दृष्टि विचार में पर नही, हम मौन न हो सकें कह चलें अपनी सरला क्या पवन-ससृति से इस शून्य मे भर उठे मधुर ध्वनि विश्व मे "यह सही, तुम । सिन्धु अगाध हो हृदय मे बहु रल भरे पडे प्रबल भाव विशाल तरङ्ग से प्रक्ट हो उठते दिन रात ही न घटते-बढते निज-सीम से-- तुम कभी, वह बाडव रूप की लपट मे लिपटी फिरती नदी प्रिय, तुम्ही उसके प्रिय लक्ष्य हो प्रसाद वाङ्गमय ।।१९४॥