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पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय खंड 1.djvu/२५५

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प्रियतम . क्यो जीवन-धन । ऐसा ही है न्याय तुम्हारा क्या सवत्र लिखते हुए लेखनी हिलती, कंपता जाता है यह पर औरो के प्रति प्रेम तुम्हारा, इसका मुझको दुख नही जिसके तुम हो एक सहारा, उसको भूल न जाव कही निदय होकर अपने प्रति, अपनेको तुमको सौंप दिया प्रम नही, करणा करने को क्षण भर तुमने समय दिया अब से भी तो अच्छा है, अब और न मुझे करो बदनाम क्रीडा तो हो चुकी तुम्हारी, मेरा क्या होता है काम स्मृति को लिये हुए अन्तर मे, जीवन कर देगे निशेष छोडो अब भी दिखलाओ मत, मिल जाने का लोभ विशेष कुछ भी मत दो, अपना ही जो मुझे बना लो, यही करो रक्खो जब तक आँखो म, फिर और ढार पर नही ढरो कोर बरौनी का न लगे हाँ, इस कोमल मन को मेरे पुतली बनकर रह चमक्ते, प्रियतम | हम हग मे तेरे . प्रसाद वाङ्गमय ।।१९६॥