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पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय खंड 1.djvu/२५६

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मोहन अपने सुप्रेम-रस का प्याला पिला दे मोहन तेरे मे अपनेको हम जिसमे भुला दें मोहन निज रूप-माधुरी की चसको लगा दे मुझको मुंह से कभी न छूटे ऐसी छका दे मोहन सौन्दय विश्व भर में फैला हुआ जो तेरा एकत्र करके उसको मन मे दिखा दे मोहन अस्तित्व रह न जाये हमको हमारे ही मे हमको बना दे तू अब, ऐसी प्रभा दे मोहन जलकर नही हैं हटते जो रूप की शिखा से हमको, पतग अपना ऐसा बना दे मोहन मेरा हृदय-गगन भी तव राग म रंगा हो ऐसी उपा की लाली अप तो दिखा दे मोहन आनन्द से पुलककर हो रोम रोम भीने सगीत वह सुधामय अपना सुना दे मोहन कानन कुसुम ॥१९७॥