पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय खंड 1.djvu/२५७

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भाव-सागर थोडा भी हंसते देखा ज्याही मुझे त्योही शीघ्र रुलाने को उत्सुक हुए क्यो इर्ष्या है तुम्हे देख मेरी दशा पूण सृष्टि होने पर भी यह शून्यता अनुभव करते हृदय व्यथित क्या हो रहा क्या इसमे कारण है कोई, क्या कभी और वस्तु से जब तक कुछ फिटकार ही मिलता नही हृदय को, तेरी ओर वह तब तक जाने को प्रस्तुत होता नहीं कुछ निजस्व सा तुम पर होता भान है गर्व-स्फीत हृदय होता तव स्मरण म अहकार से भरी हमारी प्राथना देख न शक्ति होना, समझो ध्यान से वह मेरे म तुम हो साहस दे रहे लिखता हूँ तुमको, फिर उसको देख के स्वय सचित होर भेज नही सका क्या? अपूण रह जाती भापा, भाव भी यथातथ्य प्रकटित हो सकते ही नही अहो अनिवचनीय भाव-सागर ! सुनो मेरी भी स्वर-लहरी क्या है कह रही प्रसाद वाङ्गमय ।।१९८॥