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पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय खंड 1.djvu/२५८

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मिल जाओ गले देख रहा हूँ, यह फैसी कमनीयता छाया सी कुसुमित कानन मे छा रही अरे, तुम्हारा ही यह तो प्रतिविम्ब है क्यो मुझको भुलवाते हो इनमे ? अजी तुम्हे नहीं पाकर क्या भूलेगा कभी मेरा हृदय इन्ही कांटो के मे जग की कृत्रिम उत्तमता का बस नही चल सकता है, बडा कठोर हृदय हुआ मानस-सर मे विकसित नव अरविन्द का परिमल जिस मधुकर को छू भी गया हो कहो न कैसे वह कुरवा पर मुग्ध हो धूम रहा है कानन मे उद्देश्य से फूलो का रस लेने की लिप्सा नही मधुकर को वह तो केवल है देखता कही वही तो नही कुसुम है खिल रहा उसे न पाकर छोड चला जाता अहो कानन कुसुम ॥१९९॥