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उसे न कहो कि वह कुरबक रस-लुब्ध है हृदय कुचलने वालो से, अभिमान के नीच, घमण्डी जीवो से बस कुछ नही उन्हे घृणा भी कहती सदा नगण्य है वह दब सकता नही, न उनसे मिल सके जिसमे तेरी अविकल छवि हो छा रही तुमसे कहता हूँ प्रियतम ! देखो इधर अब न और भटकाओ, मिल जाओ गले प्रसाद वाङ्गमय । २००॥