पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय खंड 1.djvu/२७

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तत्व को परिभाषित करना है उसमे आपेय की निरपेय मीमासा का यहा प्रकरण है नाम के समथन का प्रसग नहीं। फिर जहा बाह्य उपाधि से हट कर कनिकम के आन्तर हेतु को ओर उन्मुख होने की बात है वहा उपाधि या नाम कुछ भी हो, उससे 'कवि' को क्या लेना देना, जिसका केवल शाब्दव्यवहारी मूत्य है विकल्पमम वाह्योपादान से उपरत हो सकल्पमय आन्तर निमित्त के अनुशीलन में, नाम और प्रथनपरक वितक धरातलीय प्रत्यवाय के अतिरिक्त कुछ नही ठहरते । विकम और काव्य के विशुद्ध सत्व को यहा प्राप्त व्याकृति किसी भी भाषा के लिये ममनीय है अनुभूति और अभिव्यक्ति के प्रसग सावभौम रहते है। नई कविता धारा की मीरा को ऐसो तिरस्कृति मे मिला यह छायावाद नाम उसके लिये 'राणा का विषयप्याला' बना जिसे पीकर वह आमूलचूल मुखर हो उठी उसके रोम रोम से नूपुर को ध्वनि आने लगी। नये छन्दो मे आन्तरहेतू से जुडे हृत्कोपीयस्पन्दनो की छाया उतर पडी और, अभिव्यक्ति की इस विधा के 'तरुतले, 'धधकती मरुज्वाला' मे मानवी-मवेदना को छाया मिली इस अथ मे यह छायावाद नाम भी क्या बुरा रहा। श्रद्धेय पन्त जी इस नाम सन्दभ मे लक्ष्मण के आकाश से आविष्ट प्राय हो कहते हैं-'आगे हम भी इस युग वी कविता के लिये इतिहास के पृष्ठो पर बलपूर्वक अकित इस छायावाद शब्द का ही प्रयोग करेगे। जिस प्रकार वात्मीकि उल्टा नाम रटकर ब्रह्म के समान हो गये उसी प्रकार काव्य मे उस युग की ज्योति छाया बन कर हिन्दी साहित्य को सवसम्पन करने मे सफल हुई और छायावाद युग को हिन्दी साहित्य के इतिहास मे भक्तियुग के बाद दूसरा गौरव-स्थान प्राप्त हो सका। किन्तु, लक्ष्मण अपने आक्रोश मे शर-हस्त रहे जब कि श्रद्धेय पन्त जी शर-त्यक्त हो वेबमी को झुंझलाहट मे छायावाद का केवल शाब्दिक परिशीलन कर उसे ज्योति को छाया के रूप मे देखते हैं। ज्योति का प्रतिबिम्ब उसे और कजस्वल बनायेगा जबकि छाया में ज्योति का आपेक्षिक निषेध रहेगा। कदाचित् यहा आशय काव्य के मुकुर में युग ज्योति के प्रतिबिम्बित होने का हो सकता है कुछ पाने, अनुकारणा और अनुरणन का भी अभिप्राय सम्भव है। फिर यह जिज्ञासा उठती है कि कवि को या काव्य को युग से पाना ही है कुछ देना नही? यह ता काव्य की स्वतन्त्र अवस्था और उसके स्वस्थ विकास का ही नहीं अपितु उसको प्रयोजनीयता का भी निषेध होगा। इससे तो यही बोध होता प्रसाद वाङ्गमय ॥२८॥