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पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय खंड 1.djvu/२६२

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धर्मनीति जब कि सव विधिया रहे निपिद्ध, और हो लक्ष्मी को निर्वेद कुटिलता रहे सदैव समृद्ध, और सन्तोष मनावे खेद वैध क्रम सयम को धिक्कार अरे तुम केवल मनोविकार बाधती हो जो विधि सद्भाव, साधती हो जो कुत्सित नीति भग्न हो उसका कुटिल प्रभाव, धम वह फैलावेगा भीति भीति का नाशक हो तव धम नहीं तो रहा लुटेरा कम दुखी है मानव-देव अधोर-देखकर भीषण शान्त समुद्र व्यथित बैठा है उसके तीर-और क्या विप पी लेगा रुद्र करेगा तव वह ताण्डव नृत्य अरे दुवल तर्को के भृत्य गुञ्जरित होगा शृङ्गीनाद, घूसरित भव बेला मे मन्द्र कपेंगे सब सूनो के पाद, युक्तियां सोगी निस्तन्द्र पञ्चभूतो को दे आनन्द तभी मुखरित होगा यह छन्द दूर हो दुवलता के जाल, दीघ नि श्वासो का हो अन्त नाच रे प्रवञ्चना के काल, दग्ध दावानल करे दिगन्त तुम्हारा यौवन रहा ललाम नम्रते । करुणे | तुझे प्रणाम कानन कुसुम ॥ २०३॥