पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय खंड 1.djvu/२६३

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गान जननी जिसकी जन्मभूमि हो, वसुधरा ही काशी हो विश्व स्वदेश, भ्रातृ मानव हो, पिता परम अविनाशी हो दम्भ न छूए चरण रेणु वह घम नित्य-यौवनशाली सदा सशक्त करो से जिसकी करता रहता रखवाली शीतल मस्तक, गम रक्त, नीचा सिर हो, ऊँचा कर भी हंसती हो कमला जिसके करणा-कटाक्ष मे, तिस पर भी खुले क्विाड-सदृश हो छातो सबसे ही मिल जाने को मानस शात, सरोज हृदय हो सुरभि सहित खिल जाने को जो अछूत का जगनाथ हो, कृषक-करो का दृढ हल हो दुखिया की आंखो का आसू और मजूरो का कल हो प्रेम भरा हो जीवन मे, हो जीवन जिसको कृतियो मे अचल सत्य सकल्प रहे, न रहे सोता जागृतियो मे एसे युवक चिरञ्जीवी हो, देश बना सुख-राशी हो और इसलिये आगे वे ही महापुरुष अविनाशी हो प्रसाद वाङ्गमय ॥२०४॥