पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय खंड 1.djvu/२८

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. है कि कभी नरेशो सामन्तो की चकाचौध से जो काव्य प्रग्रहीत था अन उसका सयमन युगाधीन हो गया, आज वस्तुत कुछ ऐसा ही है, ऐसा होकर युगाश्रित काव्य केवल उसका परिचारक अथवा चारण बना है जो कुछ देने की स्थिति मे न हो केवल हाथ पसारे लेने की और दाता की जयकार मनाने की ही उसको दशा है। नहीं काव्य, भावजगत का नियामक है सूय की भांति ही उसे युग और लाक से रसग्रहण कर उसके करयाण के लिये उसमे अपना प्रातिभ ओज ढाल, अपना सब कुछ निचाड कर बरसा देना चाहिये उसे दुखदग्ध जगत पर आनन्द पूण स्वग की अवतारणा करनी है। सस्कृति का निर्माण छन्दो के अधीन है, शासनादेशो के नहीं। 'इस युग की कविता' को 'इस युग' के किसी कृती ने तो कोई नाम दिया नही फिर धरती पर पैर रखते अच्छा-बुरा जो भी नाम मिला उसे स्वीकार कर लोकयात्रा करनी थी अथवा अपनी रुचि के किसी नाम की घोषणा कर देनी थो। वैसे किसी जातक ने अपना नामकरण किया हो इसका उदाहरण नहीं मिलता ।। अस्तु, इसी प्रकार 'इस युग की कविता' के प्रवतन का एक 'सतही सवाल उठाया जाता है । जव 'आद्रज्वलति ज्यातिरहमस्मि' की परम्परा मे यह कविता आती है तब प्रवतन का प्रश्न कहा, हा अनुवत्तन की बात तो कही जा सकती है अथवा पुनजागरण की। तो, इस निसर्गोंज्वल काव्य भागीरथी की अवधारणा और उसके लोकोन्मुखी प्रवाह को सामथ्य कहा थो यह चिन्त्य बन सकता है। हिन्दी के अध्येता के समक्ष महत्व का प्रश्न यह नही कि 'इस युग की कविता' का, जिसने छायावाद नाम पाया, प्रवत्तक कौन था । ज्ञानाति को निजी सम्पदा मानकर चलने पर भी यह प्रमग केवल तिथिक्रमो के अधिष्ठान वाले इतिहास को शोभा बढा सकता है । सस्कृति और साहित्य की दृष्टि से तो महत्त्व का प्रश्न यह है कि अभिव्यजना की इस शैली के उदात्त मानक की स्थापना कहाँ हुई, 'काव्य को मात्मा की सकरपात्मक अनुभूति' की अथवत्ता कहा मिली, किससे मिली, यह भी एक आनुपगिक विचार का ही स्थल, अथवा गौण प्रश्न होगा आराध्य प्रसग नही । मानव का प्रथम कलेवर 'कौन गठित हुआ और कहा है उसकी प्रस्तरी-भूत अस्थिपजर यह ढूंढने म सन्-सवत् की वखिया उधेड़ने से तात्पय वस्तुत प्रल गवेषो का ही अधिक होगा साहित्य का प्रयोजन तो उस भाव-देह, रस-देह और शिवमय-तनु के प्राक्कथन ।॥ २९॥