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- भरत हिमगिरि का उत्तु ग शृग है सामने खडा बताता है भारत के गव को पडती इस पर जब माला रवि-रश्मि की मणिमय हो जाता है नवल प्रभात मे बनती हैं हिम-लता कुसुम-मणि के खिल पारिजात का ही पराग शुचि धूलि है सासारिक सब ताप नही इस भूमि म सूय-ताप भी सदा सुखद होता यहाँ हिम-सर मे भी खिले विमल अरविन्द हैं कही नही है शाच, कहा सकोच है चन्द्रप्रभा मे भी गलकर बनते नदी चद्रकान्त से ये हिम-खड मनोज्ञ है फैली हैं ये लता लटकती जटा समान तपस्वी हिमगिरि की वनी कानन इसके स्वादु फला से है भरे सदा अयाचित देते है फर प्रेम से इसको कैसी रम्य विशाल अधित्यका है जिसके समीप आश्रम ऋपिवय का शृङ्ग म प्रसाद वाङ्गमय ।। २१४॥ ,