पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय खंड 1.djvu/२७४

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कर कँपने से लगे । अहो यह क्या हुआ मुगल-अहटाकाश मध्य अति तेज से घूमकेतु से सूयमल्ल समुदित हुए सिंहद्वार है खुला दोन के मुख सदृश प्रतिहिंसा पूरित वीरो की मण्डली व्याप्त हो रही है दिल्ली के दुग मे मुगल-महीपो के आवासादिक बहुत टूट चुके है, आम खाम के अश भी किन्तु न कोई सैनिक भी सन्मुख हुआ रोपानल से ज्वलित नेन भी लाल हैं मुख-मण्डल भीषण प्रतिहिंसा पूण है सूयमत्ल मध्याह्न सूय सम चण्ड हो मोतोमस्जिद के प्राङ्गण मे है खडे भीम गदा है कर म, मन म वेग है उठा, क्रुद्ध हो सवल हाथ लेकर गदा छज्जे पर जा पडा, कापकर रह गई ममर की दीवाल, अलग टुकडा हुआ किन्तु न फिर वह चला चण्डकर नाश को क्यो जी, यह कैसा निष्क्रिय प्रतिरोध है सूयमल्ल रुक गये, हृदय भी रुक गया भीषणता रक कर करणा सी हो गई। कहा--'नष्ट कर देंगे यदि विद्वेप से- इसको, तो फिर एक वस्तु ससार की सुन्दरता से पूर्ण सदा के लिए ही हो जायेगी लुप्त । बडा आश्चय है आज काम वह क्यिा शिल्प-सौन्दय ने जिसे न करती कभी महस्रो वक्तृता अति सर्वत्र अहो वर्जित है, सत्य ही कही वीरता बनतो इससे क्रूरता धम जन्य प्रतिहिंसा ने क्या क्या नही विया, विशेष अनिष्ट शिल्प माहित्य का लुप्त हो गये कितने ही विज्ञान के कानन घुसुम ॥२१७॥