पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय खंड 1.djvu/२७९

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

. 1 क्यो हुए कादर, निरादर वीर कर्मों का किया सव्यमाची ने हृदय-दोवत्य क्यो धारण किया छोड दो इसको, नही यह वीर जन के योग्य है युद्ध की ही विजय लक्ष्मी नित्य उनके भोग्य है रोकते हैं मारने से ध्यान निज कुल मान क यह सभी परिवार अपने पान हैं सम्मान के किन्तु यह भी क्या विदित है हे विजय ! तुमको सभी काल के ही गाल में मरकर पडे हैं ये कभी नर न कर सकता कभी, वह एकमान निमित्त है प्रकृति को रोके नियति, किसमे भला यह वित्त है क्या न थे तुम, और क्या मै भी न था, पहले कभी क्या न होगे और आगे वीर ये सेनप सभी आत्मा सबकी सदा थी, है, रहेगी, मान ला नित्य चेतनसून की गुरिया सभी को जान लो ईश प्रेरक्गक्ति है हृद्यत्र मे सब जीव के कम बतलाये गये हैं भिन्न सारे जीव के क्म जो निर्दिष्ट है, हो धीर, करना चाहिये पर न फर पर क्म के कुछ ध्यान रखना चाहिये कर रहा हूं मै, करूंगा फलग्रहण, इम ध्यान से कर रहा जो कम, वह तो भ्रान्त है अज्ञान से मारता हूँ मैं, मरेंगे ये, कथा यह भ्रात है ईश से विनियुक्त जीव सुयन सा अथान्त है है वही कर्ता, वही फलभोक्ता ससार का विश्व क्रीडा क्षेत्र है विश्वेश हृदय उदार का रण विमुग्व होगे, बनोगे वोर से कायर कहो मरण से भारी अयश क्यो दौडकर लेना चहो उठ खडे हो, अग्रसर हो, क्मपथ से मत टरो क्षत्रियोचित धम जो है युद्ध निभय हो करो" . अति चाह सुन सवल ये वाक्य वेशव केभरे उत्साह से तन गये डोरे दृगा के, धनुप के, से हो गयी फिर तो धनञ्जय की विजय उम भूमि म प्रक्ट है जो र दिपाया पाथ ने रणभूमि म प्रमाद वाङ्गमय ।। २२२॥