पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय खंड 1.djvu/२९

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को व्यवस्था दे दी। और फिर मण्डन से भर गण्डा और मण्डन ने अथ मण्डन चलने लगा। सुतराम, सहृदयता की रमास्वाद भूमि पर पूर्वाग्रही के शयधारी समीक्षण प्रभुता पा गये । जव सहृदयता का स्थान असन्तुलित और एकागी, साग्रह ओर सापेक्ष समीक्षा ल लेती है तब प्रस्या और उपारया के समन्वय की साहित्यिक न्याय-तुला निग्था हो जाती है और वस्तु ग्रहण की अन अनुकूल प्रक्रिया काव्य-बाय को भी रे डूबती है । हाद सकरप को मोड बौद्धिक हुँकार म विलीन हो जाती है तब कवि और महृदय के मध्य समीक्षा की ऐसी प्रक्रिया हागत अतिथि बन जाती है काव्य-बोध का उसकी सात्विकी दृष्टि से ग्रहण करने कराने के स्थान पर, समीक्षा छन्द पिंगल के वम मनाह पूवर अन्य देशीय सिद्धान्त-शल्य ले अग्रसर हो जाती है और तब, साहित्य को अरण्यानी म बौद्धिक हक्या होने लगता है, रस का विनिमय नही जो साहित्य का सफरिपत प्राप्य है। बन जाता सिद्धान्त प्रथम फिर पुष्टि हुमा करतो है। बुद्धि उसी मृण को सब से ले सदा भरा करती है ।। मन जब निश्चित सा कर लेता कोई मत है अपना । बुद्धि-दैव बल से प्रमाण का सतत निरग्वता सपना । (कम कामायनी) काव्य निर्विवाद वस्तु है। अपनी बोध भूमि और प्राप्य अपना स्वारस्य और तथता न्यून कर, मौलिक इयत्ता और सहज प्रयोजनीयता से रहित होकर ही काव्य किसी वाद के अधीन होगा और ऐसी दशा उसके मूल प्रयोजन की उपपादिका नहीं अपितु प्रत्यवायिनी है । ग्रसमान या ग्रस्त काव्य रसमान या रस्य न होगा काव्य-करेणु बिना अकुश चलता है। वाद का भारवाही बन कर काव्य मूल प्रयाजन से परे और मकप च्युत हो जाता है। फिर उसे मव सामाय-अभग लोकात्मा में सवेदनो की वह भाषा भूल जाती है जो उमका अनन्य और शाश्वत नीड निक्त है परिणामत आरूढ-बाद का अधिवक्ता बन जाता है और लोक्-मानस की अविकल छवि फिर काव्य के वैसे धूमिल मुकुर मे नहीं उतर पाती। अनुभूति को भी किसी वाद के बैसाखी की आवश्यक्ता नही उसके उदयास्त निर्विवाद होते रहते ह किंबहुना उसके आधार पर वादो की मूर्तिया बना - बिगडा करती हैं। वाद की तो वात दूर भाषा प्रसाद वाङ्गमय ॥३४॥