पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय खंड 1.djvu/२८२

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निष्ठुर यवन अरे क्या तू यह कह रहा धम यही है क्या इस निम्मम शास्त्र का कोमल कोरक युगल तोडकर डाल से मिट्टी के भीतर तू कुचला चाहता हाय धर्म का प्रबल भयानक रूप यह महाताप को भी उत्लघन कर कितने गये जलाये, वध कितने हुए निर्वासित कितने होकर कब कब नही बलि चढ गये, धन्य देवि धर्मान्धते गया राक्षस से रक्षा करने को धम की प्रभु पाताल जा रहे हैं युगमूर्ति से अथवा जिनकी नाल नही दिखला रही ऐसे दो स्थलपद्म खिले सानन्द है इटो से चुन दिये गये आकठ वे बाल-बराबर भी न भाल पर, बल पडा- जोरावर औ' फतहसिंह के, धन्य हैं- जनक और जननो इनकी, यह भूमि भी 1 सूबा ने फिर कहा-'अभी भी समय है- बचने का बालको, निकल कर मान लो बात हमारी' तिरस्कार की दृष्टि फिर खुलकर पडी यवन के प्रति, वीणा बजी- 'क्यो अन्तिम प्रभु स्मरण-काय मे भी मुझे छेड रहे हो? प्रभु की इच्छा पूर्ण हो' सब आच्छादित हुआ यवन की बुद्धि सा कमल-कोश में भ्रमर गीत सा प्रेममय मधुर प्रणव गुञ्जरित स्वच्छ लगा, होने शान्ति ! भयानक शान्ति और निस्तब्यता। कानन कुसुम ॥ २२५।। १५